उत्तराखण्ड प्रदेश में हिमालय की गोद में स्थित चारधाम के प्रसिद्ध तीर्थ – बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्तरी तथा यमुनोत्तरी हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिये श्रद्धा और विश्वास के प्रमुख केन्द्र हैं; इनमें श्रीबदरीनाथ एवं श्रीकेदारनाथ अन्यतम हैं। स्कन्दपुराण के केदारखण्ड के अनुसार यदि कोई व्यक्ति श्रीकेदारेश्वर के दर्शन किये बिना श्रीबदरीनाथ की यात्रा करता है तो उसकी यात्रा निष्फल हो जाती है
देवप्रयाग
यहाँ गंगोत्तरी से आनेवाली भागीरथी एवं बदरीनाथ से आनेवाली अलकनन्दा की धारा का संगम है। संगम से ऊपर श्रीरघुनाथजी, आद्य विश्वेश्वर तथा गंगा – यमुना की मूर्तियाँ है। यहाँ गृद्धाचल, नरसिंहाचल तथा दशरथाचल – ये तीन पर्वत हैं। इसे प्राचीन सुदर्शन क्षेत्र कहा जाता है। यात्री यहाँ पितृश्राद्ध – पिण्डदान करते हैं।


श्रीनगर
यहाँ नगरप्रवेश से पूर्व ही शंकरमठ मिलता है और बायीं ओर कमलेश्वर महादेव का मन्दिर है। नगर में कालीकमली वाले क्षेत्र की धर्मशाला है। श्रीसत्यनारायण भगवान्का मन्दिर है। यह स्थान श्री क्षेत्र कहा जाता है। सत्ययुग में कोलासुर के उत्पात से दुखी राजा सत्यसंध ने यहाँ दुर्गा जी की आराधना की थी। देवी के वरदान के प्रभाव से राजा ने उस असुर का संहार किया था। यहाँ अलकनन्दा धनुषाकार हो गयी है। यह धनुषतीर्थ है। ऐसी कथा है कि यहाँ भगवान् श्री राम ने कमलेश्वर शिव की अर्चना सहस्र कमलों से की थी।


भगवान् शंकर ने परीक्षा लेने के लिये एक कमल छिपा दिया, तब श्री राम ने उस कमल के स्थानपर अपना नेत्र ही चढ़ा दिया। कमलेश्वर मन्दिर नगर से डेढ़ किलोमीटर दूर है। नगर में श्री नागेश्वर, हनुमान्जी एवं कंसमर्दिनी के भी मन्दिर हैं।
रुद्रप्रयाग
यहाँ अलकनन्दा और मन्दाकिनी का संगम है। क्षेत्र की धर्मशाला है। यहाँ से श्री बदरीनाथ एवं श्री केदारनाथ के मार्ग पृथक् हो जाते हैं। यहाँ शिवमन्दिर है। देवर्षि नारद ने संगीत विद्या की प्राप्ति के लिये यहाँ शंकर जी की आराधना की थी। रुद्रप्रयाग बस-स्टेशन से लगभग किलोमीटर दूर अलकनन्दा के दाहिने तटपर कोटेश्वर महादेव का स्थान है। एक गुफा में यह शिवलिंग है, जिसपर बराबर जल टपकता रहता है।
गुप्तकाशी
पूर्वकाल में यहाँ ऋषियों ने भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिये तप किया था। राजा बलि के पुत्र बाणासुर की राजधानी शोणितपुर इसके समीप ही है। मन्दाकिनी के उस पार सामने ऊषीमठ है। कहते हैं कि बाणासुर की कन्या ऊषा का भवन वहीं था और वहीं ऊषा की सखी चित्रलेखा द्वारका स अनिरुद्ध का हरण करके ले आयी थी।

गुप्तकाशी में नन्दी पर आरूढ़ भगवान् अर्धनारीश्वर शिव की सुन्दर मूर्ति है। काशी-विश्वनाथ की लिंगमूर्ति है और नन्दीश्वर तथा पार्वती की मूर्तियाँ भी उसी मन्दिर में हैं। एक कुण्ड में दो धाराएँ गिरती हैं, जिन्हें गंगा-यमुना कहते हैं। यात्री यहाँ स्नान करके गुप्तदान करते हैं। श्री केदारनाथ के पण्डे यहीं मिलते हैं।
त्रियुगीनारायण
पर्वतशिखर पर भगवान् नारायण का मन्दिर है। भगवान् नारायण भूदेवी और लक्ष्मीदेवी के साथ विराजमान हैं। यहाँ एक सरस्वती गंगा की धारा है, जिससे चार कुण्ड बनाये गये हैं – ब्रह्मकुण्ड, रुद्रकुण्ड, विष्णुकुण्ड और सरस्वतीकुण्ड। रुद्रकुण्ड में स्नान, विष्णुकुण्ड में मार्जन, ब्रह्मकुण्ड में आचमन और सरस्वतीकुण्ड में तर्पण किया जाता है। यहाँ मन्दिरमें अखण्ड धूनी जलती रहती है। यात्री धूनी में समिधा डालते हैं और हवन करते हैं। कहते हैं कि यहींपर शिव-पार्वती का विवाह हुआ था।
This is the place where Lord Shiva and Parvati got married with Lord Narayana as witness.
– Triyuginarayan Temple

गौरीकुण्ड
यहाँ दो कुण्ड हैं – एक गरम पानी का और एक शीतल जल का। शीतल जल का कुण्ड अमृतकुण्ड कहा जाता है। कहते हैं कि भगवती पार्वती ने इसी में प्रथम स्नान किया था। गौरीकुण्ड का जल पर्याप्त गर्म रहता है। माता पार्वती का जन्म यहीं हुआ था। यहाँ पर पार्वती मन्दिर और श्रीराधाकृष्ण का मन्दिर है। यहाँ से श्री केदारनाथ की दूरी १५ किलोमीटर है और कड़ी चढ़ाई है।
वासुकीताल
श्री केदारनाथ से उत्तर लगभग १६ किलोमीटर पर वासुकीताल है, जहाँ सुनहरे रंग के ब्रह्मकमल खिले रहते हैं। सुमेरपर्वत की तलहटी में स्थित इस ताल की प्राकृतिक छटा अत्यन्त मनोरम है।
ऊषीमठ
जाड़ों में जब केदारक्षेत्र हिमाच्छादित हो जाता है, तब श्री केदारनाथ की चलमूर्ति यहाँ आ जाती है। यहाँ शीतकाल में उनकी पूजा होती है। यहाँ मन्दिर के भीतर बदरीनाथ, तुंगनाथ, ओंकारेश्वर, केदारनाथ, ऊषा, अनिरुद्ध, मान्धाता तथा सत्ययुग, द्वापर, त्रेता की एवं और कई मूर्तियाँ हैं। ऊषीमठ से एक पगडंडी मदमहेश्वर द्वितीय केदार तक जाती है। यहाँ की दूरी लगभग २९ किलोमीटर है। इस मार्ग में कालीमठ तथा मदमहेश्वर के स्थान मिलते हैं।
कालीमठ
यहाँ महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती के मन्दिर हैं। यह सिद्धपीठ माना जाता है। कहते हैं कि रक्तबीज दैत्य के वध के लिये यहीं देवताओं ने देवी की आराधना की थी। यह स्थान वन तथा बर्फीली चट्टानों के बीच में है। यहाँ एक हवनकुण्ड है, जो एक शिला से ढका रहता है। वह केवल दोनों नवरात्रों में खोला जाता है। नवरात्रों में यहाँ यज्ञ होता है।

“सिद्धपीठ कालीमठ का महात्म्य”
केदार मण्डले दिव्ये मन्दाकिन्या: परे तरे, सरस्वत्या तहे सौभ्ये काली तीर्थ इतिस्भृतम्”
(स्कन्द पुराण के.खण्ड 85 अध्याय प्रथम श्लोक)
केदारखण्ड में मन्दाकिनी नदी के बायीं तरफ सरस्वती नदी के पावन तट पर प्राचीन सिद्धपीठ कालीमत मंदिर स्थित है, यहाँ पर श्री महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती गौरीशंकर, सिद्धेश्वर महादेव एवं श्री भैरवनाथ जी के प्राचीन मंदिर विद्यमान है,
इस स्थान में देवताओं ने देवी जी की उपासना की, उपासना से प्रसन्न होकर देवी ने देवताओं को वरदान दिया, उस समय दैत्याद्यिपति रक्त बीज का प्रभाव तीनों लोको में व्याप्त था,
देवी ने इसी स्थान में रक्त बीज का वध कर, महाकाली मंदिर के गर्भ गृह में अर्न्तध्यान हो गयी, तब से यहाँ पर श्री मृहाकाली यंत्र की पूजा की जाती है, श्री महालक्ष्मी के मंदिर में प्रज्जवलित तीन युग से अखण्ड धूनी है। जिसम नित्य होम किया जाता है, इसी स्थान पर मां सरस्वती के वरद पुत्र विश्व विख्यात महाकवि कालिदास जी को विद्या की प्राप्ति हुई, इनकी जन्मस्थली सिद्धपीठ कालीमठ के निकट 5 K.M. की दूरी पर कविल्ठा ग्राम है।

कालशिला
कालीमठ से लगभग ५ किलोमीटर दूर यह स्थान है। यहाँ विभिन्न देवियों के चौंसठ यन्त्र हैं। कहा जाता है कि रक्तबीज युद्ध के समय इन्हीं यन्त्रों से शक्तियाँ प्रकट हुई थीं।
कोटिमाहेश्वरी
यह स्थान कालीमठ से लगभग ३ किलोमीटर दूर है। यहाँ कोटिमाहेश्वरी देवी का मन्दिर है। तीर्थयात्री यहाँ पितृतर्पण एवं पिण्डदान करते हैं।